सुगद्य / वंदे मातरम् मातृभूमि के उजाले की अनंत प्रतिध्वनि ~ परिचय दास #rjspositivemedia
सुगद्य / वंदे मातरम्
मातृभूमि के उजाले की अनंत प्रतिध्वनि
~ परिचय दास #rjspositivemedia
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।। एक ।।
वंदे मातरम्—यह शब्द नहीं, एक धीमी-धीमी धड़कती हुई धुन है, जो राष्ट्र के हृदय में उतनी ही सहजता से उठती है जितनी मंदिर के गर्भगृह में दीया अपनी लौ को उठाता है। इसमें किसी आदेश का स्वर नहीं, किसी शक्ति-प्रदर्शन की आकांक्षा नहीं; यह एक तरह की आंतरिक कंपकंपाहट है, जब मन माँ के चरणों में अनायास झुक जाता है। वंदे मातरम् कहते हुए हम किसी बाहरी सत्ता को नहीं, एक गहरी, अनुभूत, अनाम उपस्थिति को प्रणाम करते हैं—वह उपस्थिति जो मिट्टी में है, जल में है, हवा में है, और उस अनाम वसंत-गंध में है जिसे हम पहचानते हैं पर नाम नहीं दे पाते।
जब भी यह उच्चारण जन-मन में उभरता है, लगता है जैसे दूर कहीं से पवन का एक हल्का झोंका आता है और खिड़की पर रखी हुई किसी पुरानी, करघे की बुनाई की साड़ी के पल्लू को जरा-सा हिला जाता है—जैसे माँ कमरे में आई हो और बिना किसी घोषणा के अपने बच्चों पर निगाह डाल गई हो। राष्ट्रगीत की इस अनुभूति में गीत की शक्ति से अधिक, उस स्मृति की ऊष्मा है, जिसमें हम अपनी मातृभूमि को उसी अंतरंगता से याद करते हैं जैसे किसी गाँव की दोपहर में आँगन में बैठी माँ को याद किया जाता है—सर पर धूप पड़ने न दे, इसलिए वह स्वयं धूप में बैठी रहती है।
वंदे मातरम् की ध्वनि में एक प्रार्थना का भाव है, लेकिन यह दीन प्रार्थना नहीं; यह अपने अस्तित्व के प्रति कृतज्ञता का आलोकित क्षण है। यह क्षण तब जन्मता है जब मनुष्य सब भागदौड़, तमाम व्यूहों, शक्ति संघर्षों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से मुक्त होकर अचानक मिट्टी को छूता है—आँखों में एक धूलकण अटका ही रहता है, जिसे वह हटाता नहीं, क्योंकि उस धूलकण में उसे अपनी परंपरा की कोई धीमी चमक दिखाई देती है। यही वंदना है। यही मातृत्व के प्रति वह मौन झुकाव है, जिसे शब्दों में कहना कठिन होता है।
वंदे मातरम् का उच्चारण भारत की बहुस्तरीयता को एक सूक्ष्म स्पर्श में बाँध देता है। यह विविधताओं को नष्ट नहीं करता; यह उन्हें उनके स्वाभाविक रंगों में रहने देता है, लेकिन उनकी धारा को एक प्रवाह में मिलाने की क्षमता रखता है—वैसे ही जैसे किसी विशाल नदी में अनेक छोटी धाराएँ विलीन हो जाती हैं और नदी अपनी धारा में उनका स्पर्श सँजोए आगे बढ़ती है। यह गीत अनेक आस्थाओं, अनेक भाषाओं, अनेक स्वरूपों और अनेक जीवन-रीतियों को एक साथ लेकर चलता है, बिना किसी एकरूपता का आग्रह किए। इसमें मातृभूमि का वह भाव है जो किसी खेत में खड़े धान की बालियों को भी छूता है और किसी महानगर की ऊँची इमारतों के बीच फँसी हवा को भी, जिसे मनुष्य अपने व्यस्त जीवन में भी अनुभव कर लेता है।
जब कोई अकेला व्यक्ति सड़क पर चलते हुए धीरे-धीरे वंदे मातरम् गुनगुनाता है, तो शहर का शोर भी किसी क्षण में मानो रुक जाता है। यह गीत सड़क के किनारे खड़े पेड़ों में हल्की सरसराहट बन जाता है, बिजली की तारों पर बैठे पक्षियों की बेचैनियों में एक छोटी-सी शांति बन जाता है, और वह गुनगुनाने वाला अचानक अपने भीतर किसी पुरानी नदी को बहता हुआ पा लेता है—वह नदी, जो उसे बचपन से पुकारती आई है। यह गीत बाहर से पहले मन के भीतर गाता है; इसकी असली अनुगूँज भीतर की निस्तब्धता में है, जहाँ व्यक्ति अपने देश से मिलने जाता है, जैसे कोई बिछड़ा हुआ पुत्र अपनी माँ की आँखों में लौट आने की आश्वस्ति ढूँढता है।
वंदे मातरम् में मातृभूमि किसी राष्ट्रवाद के नारों की तरह नहीं आती; वह एक गंध की तरह आती है—हल्दी, चावल, मिट्टी, धूप और स्मृति से बनी गंध, जिसे कोई न नकार सकता है, न पूरी तरह समझा सकता है। यह गंध न कभी युद्ध के बादलों में बिखरती है, न राजनीतिक बहसों में धुँधला पड़ती है। यह गंध उस भूमि की है जिसने हर मौसम में अपने पुत्रों-पुत्रियों को सँभाला, खिलाया, बचाया और कभी-कभी इतनी चुपचाप दुलारा कि उसके चरण भीगी घास की तरह मुलायम लगे।
इस गीत में माँ केवल भूमि नहीं है; वह भाषा भी है, वह स्पर्श भी है, वह समय भी है। इस माँ की देह मिट्टी से नहीं बनी—यह स्मृति से बनी है। स्मृति की यह देह हर पीढ़ी में अपना नया रूप गढ़ लेती है। आज का भारत जब वंदे मातरम् कहता है, तो उसमें पुरानी स्वाधीनता-संवेदना का तेज है, लेकिन उसी में आज की जटिलताओं, संघर्षों और उधेड़बुनों का भी एक सूक्ष्म कंपन है। इस गीत की सुंदरता यह है कि वह किसी युग-विशेष में बंद नहीं होता। बीसवीं सदी का भारत इसे जिस भाव से कहता था, इक्कीसवीं सदी का भारत उसे एक विस्तृत, आधुनिक आत्मबोध के साथ कहता है।
आज का भारत जब इसे गाता है, तो इसमें सूचना-युग की चमक भी जुड़ जाती है—मोबाइल की रोशनी में चमकती आँखें, महानगर की सांसों में ध्वनित धात्विक लय, और बदलते समय की तीव्र गति। फिर भी, इस सबके भीतर एक धीमा, स्थिर, संतुलित स्वर रहता है—वह स्वर जो कहता है कि चाहे समय कितना भी बदल जाए, मनुष्य अपने आरंभ और अपनी मिट्टी के प्रति उतना ही विनम्र रहता है।
वंदे मातरम् में एक अनोखी बात है—यह हमें किसी विशेष आदर्श के लिए नहीं बाँधता। यह हमें केवल स्मरण कराता है कि हमारी सारी लड़ाइयों, सभी उपलब्धियों, सभी इच्छाओं और सभी सपनों के नीचे कहीं कोई एक शांत आधार है—वही माँ, जो हमारे सो जाने के बाद भी जागती रहती है। हम चाहे पृथ्वी के किसी भी कोने में चले जाएँ, उसकी यह उपस्थिति हमारी देह की नसों में किसी मौन आलोक की तरह बहती रहती है।
कभी-कभी लगता है कि यह गीत मनुष्य के भीतर उसकी अपनी ही छाया को उजाला देता है। जब हम वंदे मातरम् कहते हैं, तो हम अपने भीतर की उस रौशनी को छूते हैं जिसे हम रोज़ की भागदौड़ में खो देते हैं। यह रौशनी स्मरण कराती है कि हमारे जीवन की ऊर्जा उसी भूमि से आती है, जो हमसे कुछ नहीं मांगती—जिससे हम सिर्फ लेते आए हैं। इस स्मरण का यह विनम्र क्षण, यह आदर, यह आंतरिक झुकाव, इस गीत की आत्मा है।
वंदे मातरम् के उच्चारण में कोई शोर नहीं, एक तरह की शांत गरिमा है। यह गरिमा उस नीले आकाश जैसी है जो दिन भर बदलते रंगों में भी अपनी नीलिमा बनाए रखता है। यही इस गीत की कालजयीता है—यह समय का अनुकरण नहीं करता; यह उसके ऊपर फैलकर उसे अर्थ देता है।
और जब किसी विशाल जनसमूह में हजारों लोग एक साथ वंदे मातरम् उच्चारित करते हैं, तो वह केवल राष्ट्र का गीत नहीं रहता—वह एक सामूहिक श्वास बन जाता है। उस क्षण में मनुष्य अकेला नहीं होता; वह एक बड़े, अदृश्य, अपरिमित परिवार का हिस्सा हो जाता है। उस सामूहिकता में किसी भी प्रकार का द्वेष, किसी भी प्रकार का डर, किसी भी प्रकार की संकीर्णता टिक नहीं पाती। यह गीत मनुष्य को विस्तृत करता है—उसे अपने भीतर और बाहर, दोनों ओर फैलाता है।
यही कारण है कि वंदे मातरम् किसी राजनीतिक तर्क का विषय नहीं बन सकता; यह तर्क से कहीं अधिक सूक्ष्म है। यह अहसास की भूमि है, और अहसास की भूमि पर किसी बहस की तलवार नहीं चलती। यहाँ केवल वह शांत, रेशमी लय बहती है, जो मन को अपने आप विनम्र और आलोकित कर देती है।
वंदे मातरम्—यह एक प्रणाम है जो केवल मुख से नहीं, मन से निकलता है। यह उस माँ को अर्पित है, जिसकी गोद में हमारा जन्म हुआ और जिस पर लौट आने के लिए जीवन भर एक अदृश्य पुल बना रहता है। यही इसकी काव्यमयता है, यही इसका ललितत्व है, और यही इसकी अनंत, अविचल छाया—जिसमें भारत का हृदय अपनी सबसे अंतरंग धड़कन को सुनता है।
।। दो ।।
वंदे मातरम् की अपेक्षाओं में कोई दुराग्रह नहीं, केवल एक अनाम, कोमल आग्रह है—कि मनुष्य अपने भीतर की उस धरती को भूले नहीं, जहाँ से उसकी भाषा फूटती है। यह गीत भाषा को केवल बोलियों की ध्वनि नहीं मानता; वह उसे मनुष्यता की जड़ों से जोड़ता है। जैसे किसी पेड़ की जड़ें धरती के भीतर अदृश्य होकर भी उसे जीवन देती रहती हैं, वैसे ही इस गीत की धुन भीतर-ही-भीतर उन जड़ों को सींचती है जो हमारी सांस्कृतिक अस्मिता को जीवित रखती हैं।
वंदे मातरम् में भारत माता कोई पुरातात्विक मूर्ति नहीं है, जिसे हम किसी संग्रहालय में जाकर देखें। यह माता हर सुबह सूरज की पहली किरण के साथ जागती है, खेत की मेड़ों पर ओस की बूँदों में चमकती है, और किसी छोटे शहर के गलियारे में टीवी की आवाज़ के बीच भी बच्चे की हँसी में गूँज जाती है। यह माता हमेशा गतिशील, बदलती, विकसित होती हुई, लेकिन अपनी गहरी मूल प्रकृति में एकदम शांत, पूर्ण और धैर्यवान है।
इस गीत का सौंदर्य इस बात में भी है कि यह मनुष्य को उसकी जड़ों की ओर लौटाता है, लेकिन उसे वहाँ बाँधता नहीं। यह लौटना केवल स्मरण का, आत्मीयता का, और विनम्रता का है। वंदे मातरम् कहते समय व्यक्ति आधुनिक भी होता है और परंपरागत भी—उसके भीतर तकनीक की चमक भी होती है, और किसी पुराने गाँव के तालाब की झिलमिलाहट भी। यही दोहरा कंपन इस गीत को समय के हर युग में जीवंत बनाए रखता है।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि वंदे मातरम् वह क्षण है, जब मनुष्य अपने भीतर की थकान उतार देता है। यह थकान केवल शरीर की नहीं होती; यह समय के दबावों की, संबंधों की जटिलताओं की, और अनगिनत दायित्वों की होती है। यह गीत उस धूप की तरह है जो किसी पतले बादल की ओट से निकलकर अचानक चेहरे पर पड़ती है और मन को आश्वस्त करती है कि सारी कठिनाइयाँ अस्थायी हैं, लेकिन यह धरती स्थायी है। इस स्थायित्व में ही एक आश्वासन है—एक ऐसा विश्वास जो किसी धर्म, किसी विचारधारा, किसी राजनैतिक संरचना से नहीं आता, बल्कि उस मिट्टी से आता है जिसमें मनुष्य की आदिम अनुभूतियाँ सुरक्षित रहती हैं।
वंदे मातरम् किसी सीमा रेखा को नहीं पहचानता; वह केवल उस भाव को पहचानता है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है। यह ध्वनि किसी प्रदेश, किसी भाषा, किसी जाति या किसी मज़हब की नहीं—यह उस अनुभूति की है जो तब जन्मती है जब मनुष्य अपनी साँसों में किसी ऐसी सुगंध को महसूस करता है, जिससे वह अनायास कह उठता है, “यह मेरी मिट्टी है।” यह गीत उस पहचान को स्वर देता है जो भीतर से उठती है, बाहर से थोपी नहीं जाती।
जब रात के अंतिम पहर में कोई एकांत साधक, कोई लेखक, कोई कलाकार या कोई थका हुआ मजदूर अपने कमरे में अकेला बैठा होता है, और अचानक उसे यह याद आता है कि वह किस मिट्टी से आया है, तब उसके भीतर एक अनकहा प्रणाम उठता है—यह वही क्षण है, जहाँ वंदे मातरम् का वास्तविक जन्म होता है। यह गीत केवल स्वतंत्रता संग्राम की धूल-भरी स्मृतियों में नहीं बसता; यह उन अनगिनत छोटे-छोटे क्षणों में जन्म लेता है, जिनमें व्यक्ति खुद को अपनी मिट्टी से जोड़ लेता है।
इस गीत का प्रभाव किसी विशाल नाद की तरह नहीं, बल्कि किसी कागज़ की बहुत पतली, लगभग पारदर्शी परत की तरह होता है—जो हवा के इतने हल्के स्पर्श में भी काँप उठती है कि उसकी कंपन आँखों तक पहुँच जाती है। यह कंपन मनुष्य को रुलाता नहीं, पर उसकी आँखों में वह चमक भर देता है जो केवल गहरे प्रेम के क्षणों में आती है। यही इस गीत की काव्यात्मकता है—यह शब्दों से अधिक भाव का गीत है।
वंदे मातरम् का उच्चारण मनुष्य को एक साथ विनम्र और गौरवान्वित बनाता है। विनम्र इसलिए कि वह अपने उद्गम को स्वीकार करता है; गौरवान्वित इसलिए कि वह उस उद्गम की गरिमा को महसूस करता है। यह दोहरा भाव मनुष्य को संतुलित करता है—उसे अपने स्थान, अपने उत्तरदायित्व और अपने अस्तित्व के प्रति जागरूक बनाता है। इसके भीतर कोई उग्रता नहीं, कोई दंभ नहीं; केवल एक शांत, स्थिर आलोक है, जिसमें मनुष्य अपना चेहरा देख सकता है।
और अंततः, वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, एक अनुपस्थिति का भी आलोक है। जिस माँ को हम इस गीत में प्रणाम करते हैं, वह कहीं स्पष्ट, ठोस रूप में मौजूद नहीं होती—वह हमारे भीतर की उस अनुभूति में रहती है जो हमें घर की राह दिखाती है। यह गीत इस अनुपस्थिति को उपस्थिति में बदल देता है। जब हम इसे कहते हैं, तो लगता है कि उस माँ का हाथ सचमुच हमारे सिर पर है—हवा के रूप में, स्मृति के रूप में, या किसी अनजानी सुरक्षा के रूप में।
इसीलिए, जब भी कोई मनुष्य, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी मनःस्थिति में वंदे मातरम् कहता है, तो वह उस क्षण अपनी सबसे सूक्ष्म मनुष्यता को छू लेता है। यह छूना ही इस गीत की कविता है। यह छूना ही इसकी
अनंतता है।
वंदे मातरम्—एक ऐसा प्रणाम जो समय से परे है, लेकिन समय के प्रत्येक क्षण में पुनर्जन्म लेता है, जैसे हर साँस में जीवन का एक नया सौंदर्य छिपा रहता है।
।। तीन।।
वंदे मातरम् को यदि भीतर से पढ़ा जाए, तो वह किसी एक अर्थ में स्थिर नहीं रहता; वह लगातार अपना रूप बदलता है, जैसे कोई पाठ अपनी पहली पंक्ति से ही अनेक दिशाओं में खुलने लगता है। यह गीत अपनी सतह पर जितना सरल दिखता है, उसकी गहराइयों में उतना ही बहुव्याप्त, बहुस्तरीय और निरंतर बदलता हुआ अर्थ-लोक छिपा है। उसका हर उच्चारण किसी एक अर्थ को नहीं, अर्थों की पूरी एक मूक यात्रा को जन्म देता है।
यह गीत जैसे किसी बड़े वृक्ष की शाखाओं की तरह है—कोई शाखा इतिहास की ओर जाती है, कोई व्यक्तिगत स्मृतियों की ओर, कोई भविष्य की आकांक्षाओं की ओर, और कुछ शाखाएँ अभी बनने की प्रक्रिया में हैं। इसे पढ़ते हुए मनुष्य एक ही समय में कई दिशाओं में बहने लगता है। गीत के भीतर एक मूल भाव है, लेकिन वह भाव एक ही रूप में नहीं ठहरता; वह अपने सुनने वाले के भीतर अलग-अलग आकृतियों में जगता है। कोई इसमें अपनी माँ की परछाईं देख लेता है, कोई देश की गंध, कोई संघर्ष की लौ, कोई सांस्कृतिक आत्मा का धीमा स्पंदन। यहाँ अर्थ एक नहीं, अनेक हैं—और अनेक होने के कारण ही यह गीत कभी पुराना नहीं पड़ता।
वंदे मातरम् में ‘माता’ का बिंब भी स्थिर नहीं है; वह किसी एक प्रतिमा की तरह जड़ नहीं। वह बदलती रहती है—कभी खेत में झुकी एक स्त्री की तरह, जो धान की रोपाई कर रही है; कभी शहर की खिड़की के काँच पर भाप की तरह, जो क्षणभर में बनती है और मिट जाती है; कभी किसी स्मृति में सोई हुई एक धुन की तरह, जो अचानक कोई दृश्य देखकर जग जाती है। यह गतिशीलता इस गीत की आत्मा है। इसके अर्थ किसी मंदिर की तरह स्थिर नहीं, बल्कि किसी नदी की तरह प्रवहमान हैं।
इस प्रवाह में एक और सूक्ष्मता है—गीत में कोई कठोर ‘केंद्र’ नहीं दिखता। न कोई एक निर्णायक अर्थ, न कोई अंतिम दृष्टि। यहाँ हर अर्थ दूसरे अर्थ में खुलता है, और कई बार किसी कथित ‘मुख्य अर्थ’ से दूर निकलकर ऐसे कोने में पहुँच जाता है, जहाँ यह गीत एक निजी संवाद बन जाता है। यही कारण है कि यह गीत भीड़ में और भीड़ से बाहर, दोनों जगह अलग-अलग तरह से बोलता है।
भीड़ में यह गीत एक सामूहिक लय बन जाता है। हजारों लोग एक साथ इसे कहते हैं और लगता है कि सबकी देहें मिलकर एक बड़ा धड़कता हुआ दिल बन गई हैं। लेकिन उसी गीत को जब कोई अकेला गुनगुनाता है, तो उसका अर्थ बदल जाता है—अब वह भीतर की एक फुसफुसाहट है, एक अकेली आत्मा का अपनी जड़ों से संवाद। गीत एक है, पर उसकी प्रतिध्वनियाँ दो बिल्कुल भिन्न संसारों में जन्म लेती हैं।
वंदे मातरम् की भाषा भी अपनी शक्ति सतह पर नहीं, अंतरालों में दिखाती है—उन शब्दों के बीच के रिक्त स्थानों में, जिन्हें हम पढ़ते तो नहीं, पर महसूस करते हैं। इन रिक्तियों में स्मृतियाँ, आकांक्षाएँ, दुख, आनंद, संघर्ष—सब मिलकर एक अनकहा संसार बनाते हैं। इस अनकहे को ही यह गीत आवाज़ देता है।
इस गीत में एक और रोचक आयाम है—यह अपने पाठक या श्रोता को केवल ग्रहण करने की स्थिति में नहीं रखता। यह उन्हें सक्रिय करता है। हर बार जब कोई इसे सुनता है, वह गीत को अपनी तरह से पूरा करता है, अपने अनुभवों, अपनी भाषा, अपनी स्मृतियों से। कोई इसे बचपन की किसी धुन से जोड़ देता है, कोई स्वतंत्रता की किसी कहानी से, कोई अपनी माँ की आँखों से। इस तरह यह गीत हर बार नया बन जाता है, हर बार पुनः लिखा जाता है।
वंदे मातरम् को सुनते हुए मनुष्य केवल उसे ग्रहण नहीं करता—वह उसे रचता भी है। उसकी रचना की प्रक्रिया में मनुष्य स्वयं भी बदलता है।
और सबसे गहरी बात यह है कि इस गीत की शक्ति किसी बाहरी प्रतीक में नहीं, एक आंतरिक कंपन में है। यह कंपन न तो पूरी तरह शब्दों में उतर सकता है, न तर्कों में। यह एक अनुभव है—जैसे किसी पत्ती का गिरना, किसी हवा का स्पर्श, किसी बचपन की पुकार, या किसी अप्रत्याशित क्षण में आँखों का नम हो जाना।
इस तरह वंदे मातरम् न केवल एक राष्ट्र की स्मृति है, बल्कि एक जीवित, बदलती हुई, बहुआयामी काव्य-चेतना है—जो अपने हर पाठक में एक नया रूप पाती है, और उसी परिवर्तनशीलता में अपनी अनश्वरता को सिद्ध करती है।
।। चार ।।
वंदे मातरम् का सौंदर्य इस बात में भी है कि यह किसी ठोस अर्थ-संरचना में कैद नहीं होता; बल्कि वह अर्थ को लगातार रचता और मिटाता चलता है। इसके भीतर अर्थ का उदय भी है और उसका विलय भी। जैसे कोई धुंध सूर्योदय के समय धीरे-धीरे रंग बदलती है—पहले वह सफ़ेद होती है, फिर हल्की सुनहरी, फिर लगभग पारदर्शी—यह गीत भी अर्थों को ऐसे ही धीरे-धीरे, लगभग अदृश्य तरीके से रूपांतरित करता है। गीत की यही विशेषता उसे एक जीवित पाठ बनाती है, जो हर बार नए तरीके से आकार लेता है।
जब कोई इस गीत को बोलता है, तो उसकी उच्चारण-ध्वनि अपने आप में एक अनोखा संसार रचती है। कोई इसे लंबे, धीमे कंपन के साथ बोलता है, कोई तेज़, दृढ़ उच्चारण के साथ; लेकिन हर आवाज़ अपने भीतर एक अनूठी लय लाती है, जो गीत को उसी क्षण किसी एक एकाकी नाड़ी से जोड़ देती है। इस जोड़ में कोई बाहरी दबाव नहीं, कोई अनिवार्यता नहीं—केवल एक सहज आत्मिक खुलना है।
यह गीत अक्सर उस बिंदु पर हमें ले आता है, जहाँ ‘देश’ एक इतिहास, भूगोल या राजनीतिक ढांचा न रहकर एक साधारण, सूक्ष्म, निजी अनुभूति बन जाता है—जैसे मिट्टी की हल्की-सी गंध, या बचपन की किसी भोर का चमकता हुआ आकाश, या किसी बरसाती दोपहर में कच्चे रास्ते पर उठती धूल। इसमें कोई आग्रह नहीं कि हम इन चीज़ों को याद करें; पर आश्चर्य यह है कि इस गीत को गुनगुनाते ही वे स्मृतियाँ स्वयं उठ आती हैं। यह उठना ही इस गीत की मौन शक्ति है।
वंदे मातरम् की सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि वह किसी भी व्यक्ति को अपनी परिधि में आने पर बाध्य नहीं करता। वह अपने श्रोता को चुनने की स्वतंत्रता देता है, और यह स्वतंत्रता ही उसे और अधिक व्यापक बनाती है। इसे बोलते हुए व्यक्ति अपने भीतर की उन छवियों को मुक्त करता है, जो बाहर किसी भी भाषा में पूरी तरह व्यक्त नहीं हो सकतीं। यह मुक्ति अदृश्य है, लेकिन गहरी है—जैसे कोई अनकहा सच, जो भीतर लंबे समय से सोया है, अचानक आँखें खोल ले।
गीत के भीतर प्रकृति के जो रूप आते हैं—जल, वन, पवन, शस्य-श्यामला धरती—वे केवल भौतिक वर्णन नहीं हैं। वे एक तरह से उस ‘अनुभव-स्थान’ के प्रतीक हैं, जहाँ मनुष्य अपने अस्तित्व को सबसे अधिक सजीव पाता है। इस गीत का हर प्राकृतिक बिंब भीतर के किसी भाव को छूता है—जैसे हवा स्वतंत्रता का, वन प्राचीनता का, और जल शांति का प्रतीक बन जाता है। पर ये प्रतीक तय नहीं हैं; हर व्यक्ति के लिए वे अलग-अलग अर्थ ग्रहण करते हैं। किसी के लिए वन किसी दादी की कहानी है; किसी के लिए खेत एक दादी के हाथों की महक है; किसी के लिए पवन किसी प्रिय जन की याद।
इस गीत की महिमा इस बात में भी है कि इसमें एक ऐसा मौन क्षेत्र है, जहाँ अर्थ और भाव दोनों एक-दूसरे में घुल जाते हैं। यह गीत केवल जो कहता है, वही नहीं है; यह वह भी है जो वह छिपाता है। इसकी सुंदरता उन खामोशियों में है, जो शब्दों के बीच टिकी रहती हैं—जैसे किसी चित्र में खाली सफ़ेद जगहें, जो रंगों से भी अधिक बोलती हैं।
और जब हम इसे पूरी आत्मा से स्वीकार करते हैं, तो यह गीत हमारे भीतर किसी स्थिर प्रतिमा की तरह नहीं बैठता। यह किसी नदी की तरह बहता रहता है—हमारी स्मृतियों, हमारी संवेदनाओं और हमारी व्यक्तिगत कहानियों के बीच से। कभी यह हमारी आत्मा के बहुत निकट आ जाता है, कभी थोड़ा दूर चला जाता है, लेकिन उसकी धुन हमेशा सुनाई देती रहती है—धीमी, कोमल, और अव्यक्त।
इस प्रकार वंदे मातरम् एक स्थिर वस्तु नहीं, बल्कि एक जीवित अनुभव है—जो भीतर जन्म लेता है, भीतर ही बढ़ता है, और भीतर ही अपना अर्थ बदलता रहता है। यह गीत किसी एक व्यक्ति का नहीं, लेकिन हर व्यक्ति इसके भीतर अपना एक अनूठा संसार खोज सकता है। शायद यही उस अनश्वर जादू का रहस्य है, जो इस गीत को केवल गीत नहीं रहने देता, बल्कि एक विस्तृत, संवेदनशील, बहुरंगी चेतना में बदल देता है—जहाँ शब्दों से अधिक भाव बोलते हैं, और भावों से अधिक मनुष्य का मौन।
।। पांच ।।
और यदि गहरे उतरकर सुना जाए तो वंदे मातरम् केवल बाहर की धरती का गीत नहीं, भीतर की धरती का भी गीत है—वह धरती जहाँ हमारे सबसे पुराने, सबसे व्यक्तिगत, सबसे अव्यक्त भाव दबे रहते हैं। यह गीत उन भावों को हौले से छूता है और उनमें एक हल्की कम्पन जगा देता है। यह कम्पन न तो उत्तेजित करता है, न ही किसी उग्रता को जन्म देता है; यह केवल एक कोमल, शाश्वत पहचान को जगाता है—जैसे बहुत दिनों बाद कोई आवाज़ हमें अपने असली नाम से पुकार ले।
इस गीत की गहराई इस बात में है कि यह हमारे भीतर मौजूद ‘मैं’ को किसी बड़े, व्यापक ‘हम’ से जोड़ देती है, लेकिन उस ‘हम’ को किसी भी एक अर्थ में बाँधती नहीं। यह सामूहिकता यहाँ किसी औपचारिक रैली की गूँज नहीं, बल्कि किसी पीली पड़ती दुपहर में खेतों के ऊपर तैरती हवा की तरह है—खुली, स्वच्छ और अदृश्य। यह गीत सामूहिकता के शोर से नहीं, सामूहिकता के मौन से जनमता है।
कभी-कभी लगता है कि वंदे मातरम् एक ऐसी आवाज़ है, जिसकी जड़ें भाषा से भी पहले की हैं। यह उस अनुभूति से आती है, जो मनुष्य को पहली बार महसूस हुई होगी जब उसने धरती को छुआ था—पहली बार किसी पत्ती की नरमी, किसी मिट्टी की गंध, या किसी नदी की चमक देखी होगी। इस गीत में वही पहली अनुभूति बार-बार लौटती है। यह लौटना स्थायी नहीं; यह हर बार थोड़ा बदल जाता है, जैसे स्मृति भी हर बार नई आकृति लेकर लौटती है।
गीत की यह ‘लौटने की क्षमता’ ही उसे गहरा बनाती है। हम इसे बचपन में सुने हों, या किसी समारोह में, या किसी बिल्कुल निजी क्षण में—यह गीत हर बार हमें उस समय और स्थान से उठाकर किसी और दूर अनाम जगह पर ले जाता है, जहाँ सब कुछ अधिक मौलिक, अधिक शांत, अधिक अपना लगता है। इस उठान में कोई नाटकीयता नहीं होती; यह उतना ही स्वाभाविक है जितना साँस लेना।
और देखें तो इस गीत का सौंदर्य किसी ‘संपूर्णता’ में नहीं है, बल्कि उसकी ‘अधूरापन’ में है। यह गीत पूरा नहीं कहता; वह कुछ अनछुए, अनबोले को हमेशा छोड़ देता है। यही अधूरापन उसे हमारे भीतर जीवित रखता है—क्योंकि वही रिक्त स्थान हमारे अपने अनुभवों से भरते रहते हैं। किसी के लिए यह गीत राष्ट्र की स्मृति है, किसी के लिए माँ की एक पुरानी पुकार, किसी के लिए आत्मा की एक धीमी शांति।
इस गीत की एक और अनोखी प्रकृति है—यह समय के साथ दूर भी जाता है और पास भी आता है। कुछ क्षणों में लगता है कि यह गीत बहुत पुराने पन्नों का हिस्सा है, किसी युग की स्मृति है जो अब तस्वीरों में बसती है। लेकिन कुछ दूसरे क्षणों में यही गीत बिल्कुल आज का लगता है—इतना आज का कि वह हमारे वर्तमान की धड़कनों के साथ चलने लगता है। गीत की यह दोहरी स्थिति—भूत और वर्तमान के बीच—उसे किसी भी साधारण परिभाषा में बंधने नहीं देती।
वंदे मातरम् केवल एक भाव नहीं, एक श्वास है—वह श्वास जो भीतर की सबसे शांत जगह से उठती है और बाहर की दुनिया में फैल जाती है। यह श्वास किसी आग्रह की नहीं, किसी प्रमाण की नहीं; यह एक ऐसी सहज स्वीकृति है जिसमें मनुष्य स्वयं को, अपनी स्मृतियों को, और अपने उद्गम को एक साथ महसूस करता है।
।। छ:
वंदे मातरम् की भाषिक गहराई को ध्यान से परखा जाए, तो इसके शब्द किसी सामान्य वर्णन के लिए नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार की अनुभूति को जगाने के लिए चुने गए हैं। यहाँ भाषा सूचना नहीं देती—वह एक कंपन रचती है। ‘वंदे’ में केवल प्रणाम का संकेत नहीं, एक समर्पित हृदय की वह मुद्रा है, जिसमें कर्ता और कृत्य के बीच का अंतर मिटने लगता है। यह शब्द अपने उच्चारण में ही एक झुकाव, एक विनम्रता, और एक मौन आलिंगन का भाव लिए हुए है।
‘मातरम्’ में ‘माता’ की व्याप्ति किसी व्यक्तिगत संबोधन की नहीं, बल्कि उस आदिम स्रोत की है, जिससे जीवन, भाषा, संस्कृति और स्मृति सब प्रवाहित होते हैं। यह शब्द एक साथ सघन और कोमल है—उस मिट्टी की तरह जिसमें कठोरता भी है और भरण-पोषण की अदृश्य ऊर्जा भी। इस शब्द का उच्चारण किसी स्थिर प्रतिमा का निर्माण नहीं करता; वह एक व्यापक, शीतल, पोषक उपस्थिति का अनुभव कराता है।
इन दोनों शब्दों के सम्मिलन में जो लय बनती है, वह केवल व्याकरणिक संरचना का परिणाम नहीं। यह वह क्षण है जहाँ भाषा अपनी सतह से ऊपर उठ जाती है और एक भाव-संपन्न सांस बन जाती है। शब्दों के अर्थ उनके शाब्दिक अर्थ से अधिक फैल जाते हैं—वे अपनी ध्वनि में अर्थ को बहाते हैं, और अपनी ध्वनि के बीच की खामोशियों में भाव को।
यही कारण है कि वंदे मातरम् का उच्चारण किसी औपचारिक उद्घोष की तरह नहीं गूँजता, बल्कि एक दैहिक अनुभूति बनकर उभरता है—जैसे यह भाषा नहीं, भीतर की कोई पुरानी स्मृति धीरे-धीरे आकार ले रही हो। शब्दों के भीतर छिपी यह ऊर्जा उन्हें समय से परे बनाती है।
इस गीत की भाषिक सुंदरता इस बात में है कि वह किसी एक अर्थ को बाँधती नहीं; बल्कि उसमें अर्थ एक वृक्ष की जड़ों की तरह फैलते जाते हैं—कभी सांस्कृतिक, कभी भावात्मक, कभी स्मृतिमय। भाषा यहाँ व्यक्त करने का माध्यम नहीं; वह स्वयं अनुभव बन जाती है।
इसीलिए वंदे मातरम् को बोलने पर लगता है कि हम केवल एक गीत नहीं गा रहे—हम अपनी भाषा के सबसे शुद्ध, सबसे आत्मीय रूप को छू रहे हैं। यही उस मौन, अव्यक्त गहराई का रहस्य है, जो इस गीत को शब्दों से अधिक, अर्थों से अधिक, एक धड़कते हुए भाव की तरह जीवित रखती है।
यह गीत कोई आह्वान नहीं, कोई आदेश नहीं, कोई घोषणा नहीं। यह एक बहुत धीमा, बहुत अंतरंग प्रणाम है—एक ऐसा प्रणाम जो कहा नहीं जाता, महसूस किया जाता है।
वंदे मातरम्—जैसे हवा का एक स्पर्श, जो आता भी है, जाता भी है, पर अपनी कोमलता में किसी अनंत सत्य को दृश्यमान कर जाता है।
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