इक्कीसवीं सदी का पहला जनआंदोलन - किसान आंदोलन- किसान आंदोलन, कैसे हो समाधान---लक्ष्मेंद्र कुमार चोपड़ा

इक्कीसवीं सदी का पहला जनआंदोलन - किसान आंदोलन और समाधान की राजनीति : लेखक-
लक्ष्मेंद्र कुमार चोपड़ा(पूर्वADG DD) (चार पार्ट)
प्रस्तुति- RJS POSITIVE MEDIA
: किसान महापंचायत 09-02-2021
 कुरुक्षेत्र के ग्राम गुमथला गडु पेहवा के छाया चित्र

पार्ट-1,2 ,3&4के लेखक- लक्ष्मेंद्र कुमार चोपड़ा( Former ADG  DD) , दूरदर्शन,आकाशवाणी
पार्ट-4-

आसानों के वर्तमान आंदोलन से किसान संगठन चर्चा में आये । इस पर भी बहस हो रही है कि इन संगठनों की राजनीति क्या है । वस्तुतः सुधारों के इस समय में कृषि सुधारों के पहले व्यापार व औद्योगिक जगत में जीएसटी के प्रति असंतोष के स्वर मीडिया में सुनाई दिये थे । लेकिन तत्कालीन वित्त मंत्री श्री अरुण जैटली ने कुशलतापूर्वक समस्याओं को व्यापारिक व औद्योगिक जगत के संगठनों से चर्चा कर समस्याएं सुलझा लीं ।
हमारे देश में  ये चार सशक्त संगठन हैं :-
1. 1895 में स्थापित भारतीय औद्योगिक परिसंघ Confederation of India industry CII
2.1920 में स्थापित भारतीय वाणिज्य एवं उध्योग मंडल
             ASSOCHAM
3. 1925 में स्थापित भारतीय चैम्बर आफ कामर्स ।

4. 1927 में स्थापित भारतीय वाणिज्य एवं उध्योग महासंघ  Fedration of Indian chamber of commerce and Industry   FICCI
यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस संगठन की स्थापना देश के बड़े उध्योगपतियों ने महात्मा गांधी के परामर्श पर की गयी थी ।
आज भी सभी सरकारें देश के बजट तथा आर्थिक नीतियों को लागू करने से पहले इन सशक्त प्रभावी संगठनों से परामर्श करती हैं ।
     वर्तमान किसान आंदोलन के हल में इन तथ्यों पर भी विचार किया जाना चाहिए ।
   हमारे  कुछ मित्र वर्तमान किसान आंदोलन में राजनीतिक स्थितियों से कुछ विचलित हैं । इन मित्रों  के लिए अमेरिका के इतिहास से ऐक जानकारी अमेरिका में 04 जुलाई 1892 में  इसी प्रकार के ऐक किसानों के बड़े आंदोलन के बाद ऐक तीसरे राजनीतिक दल " पापुलिस्ट पार्टी " का उदय हुआ था । क्योंकि आंदोलनकारी किसानों को लगता था कि उस समय के राजनीतिक दल उनकी मांगों और अधिकारों के प्रति सहानुभूति नहीं रखते हैं और उनके आंदोलन को बदनाम कर रहे हैं ।
हमें आप पार्टी के जन्म की स्थितियां पता ही हैं ।
          हमारे देश की राजनीति में कई बड़े राजनेता सभी दलों में हैं जिनकी कृषि जगत व कृषि नीतियों में गहरी समझ है और आदर भी । इनमें श्री के सी त्यागी , श्री प्रकाशसिंह बादल , श्री शरद पवार  और श्री राजनाथ सिंह के नाम प्रमुख हैं । सरकार तथा किसान और कृषि विचारक मिल कर निश्चित ही वर्तमान समस्याओं का हल खोज सकते हैं ।
          लेकिन सबसे पहले हम सबको किसान आंदोलन को उसका उचित सम्मान लौटाना होगा ।
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पार्ट-3
इक्कीसवीं सदी का पहला जनआंदोलन- किसान आंदोलन (3): सच की परछाइयां :
प्रत्येक लोकतंत्र में सरकार को जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत के आधार पर कानून बनाने का अधिकार है।
पांच जून 2020 को घोर कोरोना संकटकाल में भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कृषि क्षेत्र मे सुधार के नाम पर तीन कृषि अध्यादेशों को स्वीकृति दी । जिन्हें 20 से 22 सितंबर 2020 के बीच संसद के दोनों सदनों से पारित करवाया गया । ये तीन कृषि कानून इस प्रकार हैं :-
1. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य ( संवर्धन और सरलीकरण ) विधेयक 2020
मूलतः यह कानून कृषि मंडियों के निजीकरण से संबंधित है । यह कानून निजी क्षेत्र को कई अधिकार देता है ।

2.कृषि ( सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक 2020
मूल रूप से यह विधेयक कांट्रेक्ट फार्मिंग से संबंधित है ।

3.आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम 2020
    यह विधेयक कृषि उत्पादों के असीमित भंडारण के अधिकारों से संबंधित है ।

ये तीनों कानून कृषि क्षेत्र में व्यापार के इच्छुक निजी देशीविदेशी  कार्पोरेट , आम उपभोक्ताओं के साथ प्रमुख रूप से देश के करोड़ों किसान परिवारों से सबंधित हैं । वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में 26.3 करोड़ किसान परिवार हैं । इनमें से 11.9 करोड़ अपनी जमीन पर खेती करते हैं , जबकि 14.3 किसान परिवार भूमि हीन हैं ।
 
26 जुलाई 2020 को ही अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति ने इन कृषि सुधारों के प्रति विरोध आंदोलन की घोषणा की थी ।

मुख्य रूप से किसानों का असंतोष पांच मांगों को लेकर था। 
- उनकी मांग है कि सरकार सरकारी तथा निजी दोनों खरीदारी के लिए अनाज , दलहन और तिलहन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एम एस पी ) तथा शेष फसलों के लिए न्यूनतम आरक्षित मूल्य के लिए कानूनी प्रावधान करे ।
- किसी भी तरह के विवाद के निबटारे के लिए वर्तमान में सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट को नहीं बल्कि न्यायाधिकरण को अधिकार दिये जाएं ।

- किसान चाहते हैं कि उन्हें फसलों के तुरंत भुगतान प्राप्त हों , जबकि इन कानूनों में तीस दिन के बाद भुगतान की सुविधा है । किसान खरीदार का पक्का वैध डाटा भी चाहते हैं ताकि उनके साथ किसी तरह की धोखाधड़ी न हो सके ।

सही मायनों में यह ग्रामीण समाज की  महानगरीय तथा निजी कार्पोरेट के प्रति अविश्वास की आशंका थी जो उनकी शंकाओं व प्रश्नों के सम्मान जनक उत्तर नहीं मिलने के कारण आज गतिरोध का संकट बन गये हैं ।पंजाब , हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान हमेशा से बहुत जागरूक रहे हैं । हमें नहीं भूलना चाहिए कि अब तक की सबसे बड़ी किसान रैली दिल्ली में वर्ष 1988 में चौधरी चरण सिंह जी के नेतृत्व में हुई थी , उस समय श्री राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे । 

हमारे मित्र यह मानने लग गए हैं कि जनआंदोलन तथा जनता द्वारा किसी कानून में कमी सुझाने का मतलब विदेशी ताकतों के संकेत पर देशद्रोह मात्र है । जबकि न सिर्फ सरकार बल्कि सुप्रीम कोर्ट भी शांतिपूर्ण जनआंदोलन को लोकतांत्रिक अधिकार के रूप में मान्यता दे चुके हैं ।
किसी भी कानून को मार्गदर्शन के लिए सूर्य माना जाता है ।लेकिन हमारे मिथक कहते सूर्य की पत्नी का नाम छाया था । कानून में भी कमियां रह सकती हैं । उनके प्रति जिद और भावुकता तथा देशप्रेम के बहाने संशोधनों से बचना देश व समाज के हित मे नहीं है । भारत हम सबका है किसी ऐक वर्ग समुदाय का नहीं ।  
मैं यहाँ  वर्ष 1990 में संसद द्वारा पारित प्रसारभारती एक्ट का उल्लेख करना चाहूंगा । सरकारी प्रसारण संस्थानों आकाशवाणी तथा दूरदर्शन को स्वायत्तता देनें के उद्देश्य से 15 सितंबर 1997 को जब इसे लागू किया गया तब आकाशवाणी दूरदर्शन की कर्मचारी ऐसोसिएशन लड्डू बांटते हुऐ  बधाइयों का आदान प्रदान कर रहे थे । इनके लागू होते ही इन कर्मचारियों तथा उनके परिवारों को मिल रहीं सेंट्रल स्कूल  , केंद्रीय सरकारी आवासीय क्वार्टर तथा सीजीएचएस स्वास्थ्य सुविधाओं से व्यवस्था ने तुरंत प्रभाव से वंचित कर दिया , जिनकी वापसी के लिए कर्मचारियों को लंबा आंदोलन तथा कानूनी संघर्ष करना पड़ा । यहां कहने का अर्थ यही है कि कानून ऐक सच है लेकिन उसकी परछाइयां भी हो सकती हैं । इन परछाइयों के अंधेरों से  देश व समाज को बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है । ( क्रमशः )
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पार्ट-2

इक्कीसवीं सदी का पहला जनआंदोलन-किसान आंदोलन
"{2} आंदोलन मे मीडिया डिबेट :---
सोशल मीडिया पर बहचर्चित वर्तमान आंदोलन में राजनीति की भूमिका पर मीडिया में जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है । लगभग रोज शाम को मीडिया चैनल्स पर तीन से पांच राजनैतिक दलों के प्रवक्ता कोरस में कुछ बोलते रहते हैं जिसे श्रोता क्या ऐंकर्स भी ठीक से नहीं समझ पाते । लेकिन हम अनमान लगा सकते हैं कि वे अपने विरोधी दलों के पापों की गठरी खोल रहे हैं , जिन्हें चैनल्स अपने दल की नीतियों का गुणगान स्पष्ट करना मानते हैं । जबकि वास्तव में इन प्रवक्ताओं की स्थिति आमतौर पर वही होती है , जो क्रिकेट मैदान पर बारहवें खिलाड़ी की होती है । उन्हें न तो कप्तानी दांव पैंचो का ज्ञान होता है और न ही मैनेजर की नीतियों की । सो बैचारे जोर जोर से विरोधी दल की निंदा में शोर मचाते हुए मैदान में आते जाते रहते हैं ।
   अंत में जिस ऐंकर ने इन राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं को आमंत्रित किया था  इतना दुखी जान पड़ता है कि कई बार श्रोताओं को आंशका होने लगती है , कहीं यह सज्जन अथवा सन्नारी मीडिया से सन्यास ही न ले लें ।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता , वे सिर्फ ऐक ही वाक्य आप्त भाव में , उच्चारते हैं - " आखिर किसानों के आंदोलन में राजनीति क्यों "?
   इस प्रश्न का विश्लेषण अगली पोस्ट में।
            ( क्रमशः )
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पार्ट 1


इक्कीसवीं सदी का पहला जनआंदोलन -किसान आंदोलन : {1}:-- समाजशास्त्री दृष्टिकोण :---
वर्तमान किसान आंदोलन हमारे देश में उतर-पूंजी के नये दौर का पहला विशाल आंदोलन है । इसे मात्र देशविरोधी अमीर किसानों व साम्यवादी विचारधारा का राजनैतिक षड़यंत्र कह कर निरस्त करना तथ्यात्मक भूल हो सकती है । अब समय आ गया है कि इस आंदोलन को समाजशास्त्री दृष्टिकोण से समझा जाऐ । यह आंदोलन भारतीय ग्रामीण खेतीहर समाज की जीवनशैली ,सामाजिक तथा आर्थिक आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं के वैचारिक द्वंद की गाथा है । इस द्वंद की जड़ों में कार्पोरेट पूंजी की अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की प्रवृति के प्रति पारंपरिक कृषक समाज का संशय के बीज हैं। 
हमारे देश में  हमारा इतिहास ,इक्कीसवीं सदी में यह उत्तर आधुनिक  कृषि  आंदोलन देख रहा है ।
दुनिया भर में औद्योगिक क्रांति के साथ कृषक समाज के असंतोष में वृद्धि हुई है ।इसका कारण है कि औद्योगिक वस्तुओं तथा किसानी उत्पादों के मूल्यों में लंबे अंतर की खाई । वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादों के मूल्यों की अनिश्चितता तथा बाजारों पर नियंत्रण के अभाव में किसानों के श्रम व लागत का लाभ आनुपातिक रूप से कम होने की आशंका बनी रहती है । इसे तथ्यों के आधार पर समझा जा सकता है । संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्ष 1870-1890 के बीच संपूर्ण अमेरिका के कृषि उत्पादों के मूल्य में केवल 50 मिलियन डालर की वृद्धि हुई जबकि औद्योगिक वस्तुओं के मूल्य में 6000  मिलियन डालर्स की ।  
दरअसल हर देश में औद्योगिक विकास के साथ कृषि उत्पादन में वृद्धि होती है , लेकिन अतिरिक्त उत्पादन की खपत के लिए किसानों को वांछित मूल्यों के बाजार नहीं मिलते । किसान बाजारों में कड़ी मेहनत से उपजायी अपनी फसलों के मूल्यों के उतार - चढ़ाव से पूर्णतः अनभिज्ञ रहता है । उसके पास न तो औद्योगिक क्षेत्र जैसा  तो संरक्षित बाजार होता है , और न ही नकद पूंजी , जिसका वह अपनी खेती - किसानी तथा दैनिक पारिवारिक आवश्यकताओं में खर्च कर सके । इन कारणों से किसानों का मुनाफा कम होता चला जाता है। यही कारण है कि किसानों की प्राथमिकता मुक्त बाजार के आभासी अर्थशास्त्र की जगह संरक्षित मंडी व्यवस्था जान पड़ती है ।
वर्तमान आंदोलन का ऐक सामाजिक कारण यह भी है कि किसानों को लगने लगा है कि  उनकी सामाजिक तथा राजनीतिक उपेक्षा बढ़ती जा रही है । उनके इस संदेह के लिए राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिए धर्म - जातियों की सोशल इंजीनियरिंग कूटनीति भी जिम्मेदार है । अब किसानों को लगने लगा है कि पूंजिपतियों की तरह उन्हें भी धर्म - जातियों से ऊपर उठ कर व्यवसायिक स्तर पर संगठित होना चाहिए।  
  किसान आंदोलन में आयोजित ट्रैक्टर रैली के दौरान घटी हिंसक घटनाएं निश्चित रूप से निंदनीय हैं । लेकिन किसान संगठन व प्रशासन द्वारा नियत रूट पर निकाली गयी विशाल तिरंगा रैली दुनिया भर में भारत के विकास की अद्भुत झांकी है । 
इस आंदोलन का ऐक समाजशास्त्री पक्ष ग्रामीण खेतीहर परिवारों की युवा पीढ़ी से भी संबद्ध है । उत्तर आधुनिक युग में पारंपरिक भारतीय परिवारों की यह.नई पीढ़ी आधुनिक वैश्विक कृषि प्रबंधन , तकनीक तथा अर्थशास्त्र से परिचित है । यह वह पीढ़ी है जो भारतीय कृषि क्रांति के बावजूद बाजारों में खाद्यान्नों की खपत न होने , कृषि की बढ़ती लागत और मुनाफे की कमी के कारण परिवारों पर बढ़ते कर्ज के कारण असंतुष्ट है । भारतीय गांवों में शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी तथा बढ़ते भ्रष्टाचार से भी ये नई पीढ़ी दुखी है।
इस उत्तर आधुनिकतावादी किसानों के आंदोलन के प्रति समाज , किसानों तथा हमारी लोकतांत्रिक सरकार को अपनी समझ साकारात्मक रूप से विकसित करनी होगी। भारतीय समाज में नवाचारों के प्रति रचनात्मक जिज्ञासा है ,लेकिन हमारे देश में कृषि मूल रूप से ऐक सांस्कृतिक उपादान भी है । कृषि उत्सव - पर्व के साथ पारंपरिक नियमों - निषेधों से भी सम्बद्ध हैं । कई कृषक आदिवासी समाजों में जब तक फसल खेतों में है , यौन संबंध वर्जित हैं ।
सही तो यह है कि सभी पक्षों को इन कानूनी प्रावधानों पर भारतीय संस्कृति की प्रादेशिक विविधता के अनुरूप हल खोजना चाहिए । विशाल भारत के गांवो की सामाजिक  , आर्थिक तथा कानूनी आवश्यकताऐं अलग अलग हो सकती हैं ।( क्रमशः )
................  लक्ष्मेंद्र चोपड़ा
            C 64 South city 2
                Guru gram

प्रस्तुति-RJS POSITIVE MEDIA
9811705015.

Comments

  1. श्री लक्षमेन्द्र जी 🙏
    आपके लेख में जन लोक वासियों के किसान की समस्या के अनुभव गम्यता को।शब्द दिए गए है।
    👊वन्दे मातरम्

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