आचार्य प्रशांत जी अपना दु:ख और चिंता जाहिर नहीं करते बल्कि समाज को जगाने में जीवन खपा रहे हैं--- #acharyaprashant,#rjspositivemedia,#rjs_positive_india,
*आपको इस घटना के बारे में न बताने के लिए माफ़ी
🙏🏻*
आचार्य प्रशांत जी अपना दु:ख और चिंता जाहिर नहीं करते बल्कि समाज को जगाने में जीवन खपा रहे हैं--- #rjspositivemedia
➖➖➖➖➖➖
कल अपने (आचार्य प्रशांत)चैनल पर एक वीडियो प्रकाशित हुआ जो फरवरी में रिकार्ड हुआ था। उस वीडियो में आचार्य जी ने पहले हुई एक दुर्घटना का सरसरी तौर पर ज़िक्र किया हुआ था। तो कल से आपमें से बहुत लोगों के चिंताकुल सवाल हमारे पास आने लगे। और आज सुबह से तो उस दुर्घटना के बारे में दर्जनों जिज्ञासाएँ आए जा रही हैं।
उन जिज्ञासाओं और चिंताओं के लिए:
दुर्घटना हुए अब दो माह बीत चुके हैं। संस्था की संस्कृति आचार्य जी ने कुछ ऐसी विकसित की है कि अपने कष्टों को हल्के में लेना है, और बात-बात पर दुनिया के सामने नहीं रोना है। तो हमने उस दुर्घटना को सार्वजनिक नहीं किया। जिन लोगों को पता भी चल गया, उनको यही कहा कि कोई बड़ी बात नहीं है, शोर मत मचाइएगा। तो बात आप तक नहीं पहुँची।
जनवरी के ऋषिकेश शिविर के बाद का अगला दिन था: 1 फरवरी। आचार्य जी ने पिछली देर रात तक शिविर का सत्र लिया था, और फिर पूरी रात काम किया था। सुबह सिर्फ़ तीन घंटे ही सोए, और फिर उठकर जल्दी से धूप में गंगा किनारे बैठ काम करने को बाहर पैदल निकल गए।
आमतौर पर आचार्य जी दिन के 14-16 घंटे काम करते हैं (यह संख्या भी कम है क्योंकि हमें तो लगता है कि वो सोते वक़्त भी काम ही कर रहे होते हैं)। यह पिछले 20 सालों से उनका जीवन रहा है। छुट्टी जैसा शब्द वो जानते नहीं - न शनिवार न इतवार न तीज न त्योहार।
लेकिन जिन दिनों शिविर होता है, उन दिनों उनके नियमित काम में बाधा पड़ जाती है। क्योंकि दिन के लगभग पाँच घंटे सत्र संबंधित तैयारी में, और सत्र लेने में खर्च हो जाते हैं। ऊपर से तीन दिन लगातार तीन-तीन घंटे सत्र की वार्ता में अपने प्राण उड़ेल देने की थकान।
तो नतीजा ये होता है कि शिविर के दिनों में आचार्य जी को दोगुना काम करना पड़ता है, और काम फिर भी पूरा नहीं होता। आप सोचते होंगे: ऐसे कौन से काम हैं? देखिए आचार्य जी का मिशन इतना विद्रोही और चुनौतीभरा है कि संस्था में सब एकदम अपरिपक्व और युवा लोग ही शामिल होने आते हैं। संस्था में कार्यरत लोगों की औसत उम्र 25-26 से ऊपर नहीं होगी। इसके अलावा, बड़ी उम्र के अनुभवी लोग जितना वेतन माँगते हैं, उतना संस्था दे नहीं सकती।
नतीजा? हम लोगों को छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा सारा काम आचार्य जी ही खुद सिखाते हैं। और फिर जब हम सीख भी जाते हैं, तो भी सुपरवाइज़ खुद आचार्य जी ही करते हैं। हम में से 90% लोग कॉलेज के फ्रेशर्स हैं। संस्था में आने से पहले हमने कहीं काम नहीं किया है। तो हमने जो भी काम सीखा है, संस्था में आकर ही सीखा है। और जो सिखाया है, आचार्य जी ने खुद सिखाया है। एक साधारण पोस्टर बनाने से लेकर बैलेंस शीट बनाने तक का सारा काम अंततः आचार्य जी पर ही जाकर रुकता है। कैमरे के आगे के आचार्य जी को तो आप देखते हैं, पर कैमरे के पीछे भी आचार्य जी ही होते हैं।
तो हम बता रहे थे कि शिविर के दिनों में आचार्य जी का काम दोगुना हो जाता है। ऐसा ही जनवरी शिविर में भी हुआ। तो शिविर खत्म होते-होते पेंडिंग काम बहुत बढ़ गया था, खासतौर पर यूट्यूब का काम। उसी को निपटाने के लिए आचार्य जी रात भर जगे और फिर सुबह नींद-भरी आँखों के साथ गंगा की ओर निकल पड़े।
जानकी पुल के पास एक संकरी पहाड़ी गली से नीचे उतरकर घुमावदार मोड़ था और आगे सड़क पार करके वो घाट तक जाना चाहते थे। थके मन और उनींदी आंखों से उन्होंने सड़क पार करनी चाही, और तेज़ गति से आते एक वाहन की चपेट में आ गए। बाद में वहाँ मौजूद लोगों ने बताया कि टक्कर ऐसी थी कि हवा में कई फ़ीट उछलने के बाद वो ज़मीन पर गिरे थे।
उनका बायाँ हाथ, पीठ व बायाँ पैर घायल हो चुके थे। ज़्यादा बुरा ये था कि सर पर पीछे से चोट आई थी और खून आ रहा था। ऋषिकेश में ज़्यादातर लोग उन्हें पहचानते हैं, तो तुरंत उन्हें उठाया गया।
इस घटना के समय संस्था के सिर्फ़ एक ही सदस्य उनके साथ थे। एम्बुलेंस बुलाई गई पर आधे घंटे तक भी नहीं आई। तो आचार्य जी खुद ही वापस चढ़ाई चढ़कर अपनी कार तक आए, और उससे उन्हें AIIMS emergency ले जाया गया। खतरनाक बात ये थी कि आचार्य जी को साफ़ दिख रहा था कि उनकी यादाश्त विलुप्त हो रही है। संकट के उस पल में उन्होंने क्या किया? उन्होनें विस्तार में कागज़ पर सारे निर्देश (instructions) लिखवाए कि अगर उन्हें कुछ हो जाता है, तो संस्था कैसे चलानी है। उनका खास ज़ोर इस पर था कि रिकार्डिंग्स और किताबें नष्ट नहीं होने चाहिए।और आखिरी चीज़ उन्होनें ये लिखवाई कि अगर वो अस्पताल से वापस नहीं आते या उनका पूर्ण स्मृति-लोप हो जाता है, तो संस्था के सदस्यों को सैलरी मिलती रहनी चाहिए।
स्मृति इतनी तेजी से क्षीण हो रही थी कि सामान्य चीजें भी वो भूलते जा रहे थे। ये तक ठीक से नहीं याद कर पा रहे थे कि पिछले दिन कैम्प में क्या क्या हुआ था, और कौन से प्रश्न पूछे गए थे।
एम्स पहुँचें तो वहाँ एक कोविड के चलते ज़बरदस्त भीड़ थी। आचार्य जी इंतज़ार करने लगे। और इस दौरान वो क्या कर रहे थे, ज़रा सोचिए? इमरजेंसी में बैठकर वो यूट्यूब ये वीडयोज़ की टाइटलिंग कर रहे थे, क्योंकि वो काम पेंडिंग पड़ा था। और आप सब लोग वीडियो रोज़ निरंतर देख पाएँ इसलिए जरूरी था कि उस काम को किया जाए। और वो ये सब उस क्षण में कर रहे थे जब उनकी स्मृति और मस्तिष्क शिथिल पड़ते जा रहे थे।
उसी समय की एक घटना और। आचार्य जी को पहचानकर कुछ लोग बड़े उत्साह से उनके पास आ गए। आचार्य जी चेहरे से शांत थे तो उन लोगों ने कल्पना भी नहीं की कि आचार्य जी खुद ही इमरजेंसी में भर्ती के लिए बैठे हैं। साथ के स्वयंसेवक उन लोगों को दूर ले गए। जब वो वापस आए तो आचार्य जी की आँखों में आँसू थे, "वो कितने प्रेम से आए थे, अगर मैं ठीक नहीं हुआ तो कल से उनके किसी काम का नहीं रहूँगा"।
CT व MRI वहाँ होने में बहुत देर लग रही थी। किसी अंदरूनी ब्रेन डैमेज की आशंका थी। डॉक्टर्स ने सलाह दी कि जल्दी से टेस्ट्स बाहर की किसी अच्छी लैब में करा लिए जाएँ। टेस्ट्स बाहर कराए भी गए, पर तुरंत नहीं।
क्यों? क्योंकि MRI मशीन से उन्हें कोफ़्त है, और काम अभी भी बाकी पड़े थे, और 3-4 घंटे बीतने के बाद स्मृति बेहतर लगने लगी थी। "अभी बहुत काम है, वापिस चलो"। बहुत मनाने पर भी वह माने नहीं, और वापिस अपने कमरे में पहुँचकर मरहमपट्टी करवा कर लेट गए।
फिर उठे तो काम निपटाने लगे। उस रात उन्होनें हम सब को बुला लिया और बोले कि आज खाना संस्था के सभी कर्मियों के साथ बैठकर खाऊँगा। खाते वक्त चर्चा शुरू हुई तो कुछ 2 घंटे लगातार बोलते रहे। लेकिन पूरी चर्चा में हम में से कइयों को तो इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा कि आचार्य जी घायल हैं। पता अगले दिन तब लगा जब ब्रेन रिपोर्ट्स आईं।
रिपोर्ट्स में सौभाग्यवश कोई खतरे की बात नहीं थी, जब तक कि अगले कुछ महीनों में शरीर कोई विशेष लक्षण या प्रतिक्रिया दिखाना शुरू न कर दे। ब्रेन इंजरी का पता कई बार सालों बाद चलता है।
अगले दिन से वो फिर बैल की तरह जुत गए। सर के अलावा एक टाँग और एक हाथ छलनी था। टाँग खासतौर पर कई जगह से लहूलुहान थी। लेकिन 9 ही दिन बाद बैंगलोर कैम्प था। हम सब ने बहुत ज़ोर डाला कि कैम्प कैंसिल कर दें, पर नहीं माने। कैम्प हुआ, शेर की तरह गरजे, और अपने घावों का किसी को पता न लगने दिया।
आज इस बात को पूरे दो महीने हो चुके हैं। उनकी टाँग में आज भी सूजन है। और उठने-बैठने में दर्द है। पर मजाल है कि हम उन्हें टोक दें! सुनते ही नहीं।
परसों एक और ऋषिकेश शिविर खत्म हुआ। इसके लिए जब बोधस्थल से निकल रहे थे तो पेनकिलर माँगी। क्योंकि 6-7 घंटे गाड़ी में बैठना पीठ की चोट में बहुत दर्द देता है। ये हमारे लिए बड़ी बात है कि आचार्य जी पेनकिलर माँगें। पिछले 5 साल में मैंने यही देखा है कि वो दवाई लेना पसंद ही नहीं करते। खैर, उन्होंने पेनकिलर खाई नहीं।
और पीठ में वैसा ही दर्द उन्हें सत्र लेते वक्त होता है। चोट के बाद से लगातार 3-4 घंटे बैठना पीठ बर्दाश्त नहीं करती। लेकिन मजाल है कि सत्र में मौजूद किसी भी श्रोता को पता चल जाए कि सामने वक्ता कितने दर्द में है।
अच्छा किया कि आज का वीडियो पब्लिश हुआ, और आप लोगों ने खुद ही पूछ लिया। नहीं तो शायद ये कहानी कभी सामने नहीं आती।
काम जारी है। किताबें छप रही हैं, वीडियो पब्लिश हो रहे हैं।
अगला कैम्प मुम्बई में है। इस बार ट्रेन से जा रहे हैं। दुर्घटना के बाद से फ़्लाइट में असुविधा होती है।
पूछने के लिए धन्यवाद।
Uday manna
RJS POSITIVE MEDIA
सकारात्मक भारत जन-आंदोलन
8882704561,
8368626368.
Comments
Post a Comment