श्लील साहित्य का भोजपुरी फिल्मों में बिगड़ता स्वरूप चिंताजनक, अश्लीलता के खिलाफ समाज और बच्चों के अभिभावकों को सामने आना होगा :डॉ0 अखिलेश चन्द्र, #rjspositivemedia

श्लील साहित्य का भोजपुरी फिल्मों में बिगड़ता स्वरूप चिंताजनक :डॉ0 अखिलेश चन्द्र
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भारतीय फ़िल्म उद्योग ने इतना अच्छा गोल्डन इरा
अपने गीतों से दिया है कि जब उन दिनों के गीत सुनिये तो लगता है आत्मा का परमात्मा से मिलन हो रहा है।फ़िल्म कोहिनूर( 1960)के गीत को ही लीजिये 'दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात' संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूँनी गायक मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर अभिनय दिलीप कुमार और मीनाकुमारी या फ़िल्म -'दो आंखे बारह हाँथ' (1957) का गीतकार भरत व्यास और संगीतकार बसन्त देसाई और लता मंगेशकर और मन्ना डे की आवाज में गाया गीत ' ये मालिक तेरे बन्दे हम ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चले और बदी से बचें ताकि हँसते हुये निकले दम'जितनी बार सुना जाय एक नया जीवन और नए ऊर्जा का संचार तन और मन में भरने लगता है।हिन्दी फ़िल्मों के एक से एक गाने श्लील साहित्य से भरे पड़े हैं।फ़िल्म नया दौर (1957)का सदाबहार गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले ने अपनी आवाज से अमर कर दिया है।संगीतकार ओ.पी.नैय्यर और साहिर लुधियानवी का गीत और दिलीप कुमार और वैजन्तीमाला का अभिनय और गाँव का वो परवेश जिसमें यह गीत फिल्माया गया,गीत के बोल थे'उड़े जब जब जुल्फ़े तेरी, हो उड़े जब जुल्फ़े तेरी, कवारियों का दिल मचले दिल मेरिये,हो जब ऐसे चिकने चेहरे तो कैसे न नजर फिसले, दिल मेरिये, उड़े जब जब जुल्फ़े तेरी'।फ़िल्म सरस्वती चंद (1967)का गीत जिसे गीतकार इन्दीवर ने लिखा,कल्याण जी आनन्द जी ने संगीतबद्ध किया मुकेश और लता मंगेशकर जी ने गाया और नूतन और मनीश पर फिल्माया गया गीत 'फूल तुम्हें भेजा है खत में फूल नहीं मेरा दिल है,प्रियतम मेरे मुझको लिखना क्या ये तुम्हारे काबिल है,प्यार छिपा है खत में इतना,जितना सागर में मोती,चूम ही लेता हाँथ तेरा मैं, पास जो तुम मेरे होती,फूल तुम्हें भेजा है खत में'।इस तरह के लाखों गानों ने हिन्दी साहित्य को श्लील साहित्य से आगे बढ़ाया है।
अपने समय के गोल्डन इरा के भोजपुरी गानों ने भी खूब श्लील रहते बहुत वाहवाही लूटी।याद कीजिये वो जमाना जब भोजपुरी फिल्मों के हसीन गीत हिन्दी फिल्मों के गानों के बराबर आकर खड़े हो जाते थे और कभी-कभी तो उनसे आगे भी निकल जाते थे। भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित नाटक 'बिदेशिया' पर बनी फिल्म 'बिदेशिया'जिसमें सुजीत कुमार और पद्मा खन्ना ने अभिनय किया था उसका गीत 'हँसी हँसी पनवा खिवैले बेइमनवा,के अपना बसे ला विदेश,कोरी रे चुनरियां में दगिया लगाइ गइले मारी रे करेजवा में ठेस'।
इस गीत में जो दर्द एक विरहनी का है जिसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।इस तरह के भोजपुरी में हजारों गाने श्लील साहित्य से भरे पड़े हैं।
राजश्री प्रोडक्शन की सचिन और साधना सिंह अभिनीत फ़िल्म 'नदिया के पार'(1982) रविन्द्र जैन के संगीतबद्ध गीतों में से किसी गीत का भी उदाहरण ले लें सब सर चढ़ कर आज भी बोलते हैं और दूर कहीं जब बजते कानों को सुनाई दे जाते हैं तो मन को कितनी तसल्ली मिलती है।एक गीत जो इस फ़िल्म की पहिचान बन गया था वो गीत था'कवने दिशा में लेके चला रे बटोहिया,कवने दिशा में'इस गीत को हेमलता और जसपाल सिंह जी ने अपने आवाज से अमर कर दिया है।हेमलता जी का एक और गाना इसी फिल्म का 'जब तक पूरे न हो फेरे सात, तब तक बबुनी नहीं बबुआ की' यह गीत जैसे दूल्हा और दुल्हन के लिये नही, समाज के नव निर्माण के लिए भारतीय श्लील समाज की आधारशिला है।
भोजपुरी फिल्मों ने भी अपने उत्तर प्रदेश,बिहार का आंचलिक परिवेश का खाका पूरे भारत मे प्रस्तुत किया।उस गोल्डन इरा में हम भोजपुरियन का प्रतिनिधित्व इस श्लील साहित्य ने बचा कर रखा और भारत को बताया कि हम अच्छे लोग हैं, हमारी सभ्यता और संस्कृति सनातन धरोहर है।हम अपनी आन -बान और शान के लिये कुछ भी करने वाले लोग हैं।एक बार फिर फ़िल्म नया दौर का वो गाना उठाना चाहूँगा जो आज भी नवयुवकों में जोश भर देता है 'ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का इस देश का यारों क्या कहना ये देश है दुनियां का गहना'इस गीत को भी ओ.पी.नैयर साहब ने संगीतबद्ध किया था और शाहिर लुधियानवी जी ने लिखा था और मोहम्मद रफ़ी और बलवीर जी ने अपनी आवाज से इसे अमर किया।इस गाने को दिलीप कुमार और अजीत साहब पर फिल्माया गया जो मील का पत्थर है।
मगर बेहद अफसोस के साथ और दर्द भरे हृदय से कहना पड़ रहा है कि हमारे आज के भोजपुरी फिल्मों के गीतकार,संगीतकार,निर्माता,निर्देशक,नायक और नायिका ने इस पूरे भोजपुरियन समाज का सिर पूरे विश्व मे इतना गिरा दिया है कि कुछ कहते नही बन रहा है।आज के भोजपुरी फिल्मों के गाने दृअर्थी, लिखे जा रहे हैं, कही पर निगाहें और कहीं पर निशाना लगाने के चक्कर में हम अपनी संस्कृति और सभ्यता से खिलवाड़ कर रहे हैं।भोजपुरी फिल्मों के स्टार से या निर्माण में लगे सभी डिवीजन के लोगों से मेरा कहना है कि क्या आप अपने द्वारा परोसे जा रहे इस अश्लील साहित्य को अपने परिवार,अपनी माँ, अपनी बहन,अपनी मौसी,अपनी नानी ,अपनी दादी ,अपने बच्चों ,अपने भाई,के साथ बैठकर देख और सुन सकते हो।इसका उत्तर मैं जानता हूँ नहीं होगा,तब आप लोग ऐसा सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिये क्यों कर रहे हों?पैसा कमाना ही है तो साफ सुथरी फ़िल्म बनाओ जिससे हम भोजपुरियन का सीना चौड़ा हो सके।सच बताऊँ आप लोग के इस कार्य से हम सभी लज्जित हो रहे हैं।ये आज का स्टारडम जो दिख रहा है न सब खत्म हो जाएगा कुछ बचेगा नहीं लेकिन आप लोग एक काला अध्याय बनकर रह जाएंगे।
भोजपुरी को संविधान की आठवीं सूची में भाषा का दर्जा क्या हम ऐसे साहित्य से प्राप्त कर पाएंगे।संसद में हम कौन सी भाषा का प्रस्तुतिकरण करेंगे।भोजपुरी साहित्य में इतना अच्छा लिखा जा रहा है अच्छे विषय को पकड़कर अच्छी और साफ सुथरी फ़िल्म बनाने में कैसी दिक्कत है?जब बुरा बनेगा नही तो लोग बुरा देखेंगे भी नहीं और बुरा सुनेंगे भी नहीं।आज के भोजपुरी फिल्मों के गानों के लिये तो हमें महात्मा गाँधी का बन्दर बनना पड़ेगा।न हम देखेंगे,न हम सुनेंगे और न हम बिगड़ेंगे।
अश्लील और फूहड़ गीत जब कोई ऑटो वाला, बस वाला ,डीजे वाला बजाता है तब सोचो हमारी माँ-बहन पर क्या बीतती है।आजकल आपकी अश्लील और दृअर्थी मानसिकता का एक गीत भोजपुरी समाज पर कलंक बन कर समाज को गंदा कर रहा है।गीत के बोल है........... लंदन से लाएंगे रात भर डीजे बजायेंगे।जरा सोचिये जिस शब्द को मैं यहाँ लिखने से भी बच रहा हूँ आप लोग उस शब्द को लिख भी रहे हैं और कानफोड़ू संगीत के साथ परोस भी रहे हो।
मुझे तो उन भोजपुरी नायिकाओं पर भी तरस आता है कि जब वो सामान्य परिस्थितियों में बात करती हैं तब स्त्री विमर्श के मुद्दे को उठाती हैं कि हमारे साथ अन्याय नही होना चाहिये।यह सही भी है कि किसी पर अन्याय कदापि नही होनी चाहिये पर वो अपने ऊपर खुद अन्याय कर रहीं हैं तो उनका स्त्री विमर्श बेइमानी लगता है।'नदिया के पार' फ़िल्म को देखने लिये लोग बुकिंग खिड़की पर डंडे खाये हैं और आज भोजपुरी फ़िल्म देखने लोग जा नही रहे हैं तब क्यों इस तरह की फूहड़ता परोस रहें हैं।?इन फिल्मों को सेंसर पास क्यों कर रहा है?क्या सेंसर में बैठे लोग जो इन फ़िल्मों को पास करते हैं वह अपने परिवार के साथ इन फिल्मों को देख सकते हैं।शर्म को भी शर्म आ जाय इस तरह की शर्मिंदगी देखकर जो समाज में परोसा जा रहा है।सेंसर बोर्ड में अच्छे लोगों का पहुँचना भी जरूरी है ।बोर्ड सदस्य ऐसा होना चाहिये जिसको समाज का,संस्कृति का,सभ्यता का और भाषा का ज्ञान हो साथ ही साथ एक शैक्षणिक योग्यता भी निर्धारित की जानी चाहिये।मैं तो उस साहित्य को साहित्य मानता ही नहीं हूँ जिसे तकिये के नीचे छिपा कर पढ़ा जाता हो,जो अश्लील हो और यहाँ तो सब कुछ परोसा जा रहा है वो भी पर्दे पर जिस पर आज पर्दा डालने की जरूरत है।परदे में रहने दो परदा न उठाओं का श्लील साहित्य आज बेपर्दा हो रहा है।यह अत्यन्त चिंताजनक के साथ-साथ दुर्भाग्यपूर्ण है।
याद कीजिए फ़िल्म 'घर द्वार'का वो गीत'कहे के त सब केहू आपन ,आपन कहावै वाला के बा'में जीवन दर्शन है, ज्ञान और संघर्ष की गाथा है।मानव अपना संघर्ष करके अपना मुकाम खुद बनाता है ऐसा सन्देश है।
आज के बिगड़े भोजपुरी साहित्य के माहौल में भी कुछ व्यक्ति इस श्लील परम्परा को जीवित भी रखें हुएं हैं उनसे इस साहित्य को बड़ी उम्मीद है,उनका मैं बड़ा सम्मान भी करता हूँ और उनका कायल भी हूँ।भोजपुरी के बड़े गायक बड़े भाई भरत शर्मा'व्यास' जी और मालिनी अवश्थी जी ने अभी अपने को बचा कर रखा है।आपके पथ पर चलकर ही इसे अश्लील से श्लील बनाया जा सकता है।
आज जब भी कोई भी गीत भरत शर्मा व्यास जी का 'नैहर कैसे जइबू'निर्गुण अथवा मालिनी अवस्थी जी का गीत सुनिये मन खुश हो जाता है।भोजपुरी समाज और भोजपुरी साहित्य समृद्ध हो जाता है।मालिनी जी का गाया गीत'रेलिया बैरन पिया को लिए जाय रे रेलिया बैरन'या सैंया मिले लरकइयां मैं का करूँ हो सैंया मिले लरकईया मैं का करूँ'।इन गीतों में भारत की नारी बसती है, उसका विरह और अठखेल जीवंत हो उठता है।
भोजपुरी के इस अश्लील साहित्य को श्लील साहित्य से बचाना होगा इसके लिये हमें अच्छा लिखना होगा और भोजपुरी फ़िल्म उद्योग को भी इन दृअर्थी गीतों से समाज को बचाना होगा अन्यथा आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी मांफ नही करेंगी।

डॉ0 अखिलेश चन्द्र
एसोसिएट प्रोफेसर शिक्षा संकाय श्री गाँधी पी जी कॉलेज, मालटारी, आजमगढ़, उत्तर प्रदेश।

रिपोर्ट
आरजेएस पाॅजिटिव मीडिया & आरजेएस वाणी
9811705015

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