भारत के उत्तर पूर्व की संस्कृति पर एक दृष्टि : परिचय दास.--प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभागनव नालन्दा महाविहार सम विश्वविद्यालय ( संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), नालंदा. #rjspositivemedia

भारत के उत्तर पूर्व की संस्कृति पर एक दृष्टि :
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भारतीय भाषा का सांस्कृतिक विमर्श / ब्रजावली भाषा व संस्कृति के लिए आज क्या करें _______________________
-परिचय दास
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
नव नालन्दा महाविहार सम विश्वविद्यालय ( संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), नालंदा
ब्रजावली (असमिया उच्चारण-ब्रोजावोली) एक भाषा रही है, जिसमें शंकरदेव, माधव देव  आदि की रचनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। यह ब्रजभाषा नहीं है । आज यह भाषा साहित्य व इतिहास के गर्भ में है । इस के  विलुप्तीकरण का खतरा है तथा इस पर गहन ध्यान तुरंत जाना चाहिए ।  इसमें मैथिली क्रियापदों के साथ असमिया का मेल है तथा ब्रज की सुगंध है। कई बार भोजपुरी की झलक मिलती है। इसका कारण यह है कि शंकरदेव ने वाराणसी, प्रयाग, गया, मथुरा, पुरी आदि अनेक स्थलों / तीर्थों का भ्रमण किया था। कहा जाता है कि उनका परिवार कन्नौज (उत्तर प्रदेश) से असम गया था। शंकर देव के जीवन में अनेक विचारों तथा भाषा में अनेक भाषाओं का संश्लेषण मिलता है। वस्तुतः ब्रजावली (या ब्रजबुली) एक ऐसी मिश्रित क्रियापदों तथा शब्द प्रयोगों की भाषा है जो कायदन कहीं बोली नहीं जाती किंतु इसमें असमिया के प्राचीन, ओड़िया के प्राचीन तथा बाङ्ला के प्राचीन रूपों का स्वरूप या झलक मिल जाती है। विद्वानों का कहना है कि अवधी, खड़ी बोली, नेपाली की ध्वनियाँ भी इसमें अनुस्यूत हैं। एक धारा कहती है कि विद्यापति की पदावली से इसका विकास हुआ है। किंतु इसका वास्तविक साहित्यिक सौंदर्य शंकरदेव, माधवदेव में देखने को मिलता है। सुकुमार सेन की इस बात से विरिंचि कुमार बरुआ  , कालीराम मेधी, सत्येन्द्र नाथ सरमा सहमत हैं कि भले ही बाङ्ला कवियों ने इस भाषा को गति दी लेकिन आरंभ विद्यापति के मैथिली पदों से हुआ। यही बात डा0 जयकांत मिश्र भी मानते हैं कि ब्रजावली व पुरानी मैथिली का मेल है। बाद में डा0 सुकुमार सेन ने इसका संबंध अवहट्ठ से जोड़ा। अनेक शोधक असमिया ब्रजावली को प्राचीन मैथिली से अलग बताने वाला सिद्धांत बताते रहते हैं और वे अवहट्ठ से जोड़ते रहते हैं। सहजनी बौद्धों, नाथ योगियों की भाषा का अध्ययन होने से लोक अवहट्ठ के आधारों पर प्रकाश पड़ता है। खैर, यह संश्लिष्ट भाषा-वैजानिक प्रश्न है, जिस पर और भी अध्ययन होना चाहिए।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि ब्रजावली के प्रयोग से शंकरदेव तथा माधवदेव अपनी बात पहुॅंचाने में दूर तक समर्थ हुए। असम, बङ्ग प्रदेश, ओड़िशा, नेपाल, समूचा उत्तर पूर्व, ब्रज  क्षेत्र, मिथिला, काशी-गोरखक्षेत्र, गया-पाटलिपुत्र तक तो वे सक्षम हुए। सच पूछिए तो यह भारत की एक ऐसी मिश्रित ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में सामने आयी जिसमें संतों के जीवन के वैराग्य का ताप तथा सहज लोक का राग मिलता है। ‘बरगीत’ तथा अंकिया नाट (शंकरदेव लिखित) रचनाओं में साहित्य की नयी दृष्टि भाषा का नया रूपक तथा वैष्णव भक्ति का नया आयाम मिलता है। माधवदेव के ‘नामघोषा’ में भी एक विलक्षण साहित्यिक ऊॅंचाई मिलती है।

यह पहली बार है कि समाज सचेतन संस्कृति को   नायकत्व देने  वाले  संतपुरूष ने केवल नाटकों की ही रचना नहीं की अपितु उनका मंचन- निर्देशन किया। ये सारे नाटक अपनी लोक शैली व साहित्य के संयुग्मन तथा गद्य व पद्य के सम्मिलन के लिए विशिष्ट माने जाएंगे। गद्य का इतना सुंदर रूप उस समय मुश्किल था। संत भाव को नाटक मर्म के साथ जोड़ना शायद भारत में तो सर्वप्रथम था ही , विश्व में भी दुर्लभ है।

ब्रजावली का रूप सौंदर्य सत्रिया नृत्य (सत्रीय नृत्य) में भी देखने को मिलता है। अभी इसको कुछ वर्ष पूर्व शास्त्रीय नृत्य की मान्यता मिल गयी है। सारे शास्त्रीय नृत्य लोकनृत्यों के व्याकरण को स्थिरता देने तथा एक पैमाने में ढालने से निर्मित होते हैं। ‘सत्रीय नृत्य’ सत्रों (सांस्कृतिक-धार्मिक मठों) में प्रस्तुत किए जाने के कारण इस नाम को प्राप्त हुए। कृष्ण वर्णन तथा जीवन के विविध प्रसंगों से भरे गीतों की प्रस्तुति इसमें होती है। इनका विस्तार पूरे भारत में होना चाहिए विशेष तौर पर ब्रजावली से जुड़े भाषा क्षेत्रों में (बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, बंग प्रदेश, असम तथा नेपाल आदि। कथक नृत्य जैसा ही, उसी जैसी सांस्कृतिकता को आधार बनाकर सत्रीय नृत्य का भी विस्तार होना चाहिए। वाराणसी, गोरखपुर, प्रयाग, पटना, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, लखनऊ जैसे नगरों में इसकी धूम मचा देनी चाहिए। इस बहाने संस्कृति का विकास होगा।

ब्रजावली भाषा को ब्रजबुली भाषा के रूप में (किंचित परिवर्तित) बंग व  ओड़िशा में जाना जाता है। सम्पूर्ण ब्रजावली को अध्ययन का आधार बनाये तो बंग प्रदेश के ब्रजबुली कवियों -- मुरारी गुप्त, नरहरि सरकार, वसुदेव घोष  , लोचन दास, ज्ञान दास, गोविंद दास, बलराम दास, सय्यद सुल्तान, द्विज चण्डीदास, कवि रंजन, कवि शेखर , राधावल्लभ दास, घनश्याम दास, रामगोपाल दास, वैष्णव दास, चंद्रशेखर, राधामोहन ठाकुर, नरहरि चक्रवर्ती  , यदुनंदन, यशोराज खान, ओडिशा से रामानन्द राय, असम से प्रमुख रूप से शंकर देव, माधवदेव, रामचरण ठाकुूर, पुरूषोत्तम ठाकुर, दैत्यारि ठाकुर, भूषण द्विज, रामानन्द द्विज, वैकुण्ठ द्विज, अनिरुद्ध दास तथा नेपाल से ज्योतिर्मल्ल, जगत्प्रकाश मल्ल, भूपतींद्र मल्ल, प्रताप मल्ल, सिद्धिनरसिंह मल्ल आदि का गंभीर अध्ययन किया जाना चाहिए। आधुनिक समय में रवींद्रनाथ ठाकुर ने ‘भानुसिंह ठाकुरेर  पदावली ' में लिखा है। बंकिम चंद्र चटर्जी ने भी इस भाषा में लिखा है। अंकिया नाट तथा ‘भावना की प्रस्तुति’ में इस बात का ध्यान रखें कि ‘मातृ भाषा भावना’ के साथ ब्रजावली भावना को आधार बनाएं तभी ब्रजावली को उन्मेष मिल सकता है। नतुन कमलाबारी सम, माजुली के नारायण चंद्र गोस्वामी, बाली सत्र के  केशवानंद गोस्वामी तथा जगन्नाथ महंत को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। 

पूर्वोत्तर में ब्रजावली (ब्रजबुली) के विकास की अपार संभावनाएं हैं। प्रत्येक सत्र, विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में इसका अध्ययन हो। मेरा सुझाव यह है कि - बी0ए0 व एम0ए0 में ब्रजावली (ब्रजबुली) साहित्य, भाषा को रखा जा सकता है। यह 'शंकर देव अध्ययन' के समानांतर हो। यह भाषा, सौदर्य तथा साहित्य पर आाधारित हो तथा भाषा-वैज्ञानिकता व सांस्कृतिक मीमांसा भी इसमें आ जाए। बंग, ओडिशा, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, नेपाल तथा सम्पूर्ण भारत में यह पाठ्यक्रम  लागू किया जाए। संभव हो तो ब्रजावली भारतीय साहित्य विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए। बांग्लादेश में भी ब्रजबुली कवि रहे हैं, वहां भी इसकी विस्तृति की जा सकती है। शेख फैजुल्ला, सय्यद मुर्तुजा आदि को आधार बना सकते हैं। यू.जी.सी. के द्वारा ब्रजबुली (ब्रजावली) पाठ्यक्रम निर्माण पर विशेष ध्यान हो तथा उसका अनुमोदन होना चाहिए। यह ध्यान रखें कि शंकर देव का विस्तृत अध्ययन अलग चीज है, ब्रजावली (ब्रजबुली) क्षेत्रों के विद्वानों, मत्रियों, पत्रकारों, शिक्षाविदों, साहित्य समालोचकों, भाषा वैज्ञानिकों की एक बैठक हो, जिसमें रास्ता निकाला जाए। इसमें असम सरकार, विश्वविद्यालय आदि पहल करें। इस भाषा में नाटक, फिल्में प्रस्तुत की जाएं। यह भाषा उत्तर पूर्व की जीवन रेखा है तथा मेरी दृष्टि में भारत की प्रथम राष्ट्रीय लोक भाषा। इसके उन्नयन के लिए दूरदर्शन, प्राइवेट चैनल, अखबार, पत्रिकाएं सक्रिय हों। संभव हो तो कोई विशिष्ट साहित्यिक पत्रिका ब्रजावली (ब्रजबुली) में निकलें, जिसमें समकालीन सृजन के साथ मध्यकालीन रचनाएं भी हों।

यदि ब्रजावली के पक्ष में एक साहित्यिक ,सांस्कृतिक, सृजनात्मक एवं  आंदोलनात्मक पहल हो तो यह भाषा हिब्रू भाषा की तरह समकालीन भाषा बन सकती है।
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  1. जयहिंद जयभारत सकारात्मक भारत

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